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साहित्य विचार और स्मृति

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1259
आईएसबीएन :81-263-1057-x

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भारती जी के काव्य और कथा साहित्य में जहाँ रूमानियत की सघनता तथा सामाजिक चेतना और यथार्थ की तीखी-मीठी अनुभूति का गहरा मिश्रण है वहीं उनके सम्पूर्ण निबन्ध-लेखन में एक विशिष्ट प्रकार की तेजस्विता, प्रखरता और प्रतिबद्धता मिलती है।

Sahitya Vichar Aur Smriti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारती जी के लिए लेखन कभी शगल नहीं रहा, और न रोटी कमाने का जरिया ही था वह। लेखन को उन्होंने कर्म का दरजा दिया था। सृजन को वो पूजा मानते थे। इसलिए अपने लिखे शब्दों को वह बहुत गम्भीरता से लेते थे। बिना किसी प्रकार के प्रलोभनों में फँसे वे अपना लेखन-कार्य करते थे। लेखकों को निरन्तर कुछ न कुछ लिखते ही रहना चाहिए, इस बात पर कभी विश्वास नहीं करते थे और तभी लिखते थे जब कोई बात उन्हें गहरे छू जाए या कोई विचार उन्हें मथ डाले कि लिखे बिना रहा न जाय। शायद यही कारण है कि उनके निबंध-लेखन में एक विशिष्ट प्रकार की तेजस्विता प्रखरता और प्रतिबद्धता मिलती है। वे सत्ताइस वर्षों तक ‘धर्मयुग’ जैसी लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण पत्रिका के सम्पादक रहे पर कभी औपचारिक रूप से कोई सम्पादकीय जैसी चीज उन्होंने नहीं लिखी। सम्पूर्ण ‘धर्मयुग’ के संयोजन में ही वह अपनी दृष्टि का विस्तार होते देख सन्तोष प्राप्त कर लेते थे, पर जब-जब उन्होंने अपनी निजी दखल महसूस की तो ‘धर्मयुग’ में भी लिखा, सम्पादकीय भी लिखा और अन्य पत्रिकाओं में भी लिखा। इसलिए भले ही वैसा लेखन परिमाण में अधिक न हो लेकिन गुणवत्ता, सटीकता और प्रभावोत्पादकता में बहुत महत्त्वपूर्ण है।

उनके काव्य और कथा-साहित्य में प्रणयासक्ति और रूमानियत की सघनता रही है पर वहाँ भी सामाजिक चेतना और यथार्थ की तीखी-मीठी अनुभूति का गहरा मिश्रण है। प्रेमाकुलता में गहरे डूबकर तैरते-तैरते कब अध्ययन और मनन में उनमें एक विशिष्ट प्रकार की अनास्था जगा दी, यह बात भी उनके पाठक जानते हैं और यह भी जानते हैं कि विश्वास और अनास्था का अन्तर्द्वन्द्व उनके साहित्य को अद्वितीय बना गया है। अपने लेखन-धर्म के प्रति सजग भारती एक ओर कहते हैं—

‘‘ठहरो ! ठहरो ! ठहरो ! हम आते हैं।
हम नयी चेतना के बढ़ते अविराम चरण
हम मिट्टी की अपराजित गतिमय सन्तानें
हम अभिशापों से मुक्त करेंगे कवि का मन।’’


और दूसरी ओर सामाजिक संघर्षों, गिरते जीवन-मूल्यों से उपजी पस्ती से कह उठते हैं—


‘‘हम सबके दामन पर दाग
हम सबकी आत्मा में झूठ
हम सबके माथे पर शर्म
हम सबके हाथों में टूटी तलवारों की मूठ !’’


लेकिन यही कवि जब लिखता है—


‘‘सूनी सड़कों पर ये आवारा पाँव
माथे पर टूटे नक्षत्रों की छाँव
 कब तक  ?
आख़िर कब तक ?’’


यह ‘कब तक ? आख़िर कब तक ?’ की बात जब झकझोरने लगती है तब मैंने ऐसा पाया है, यह कवि गद्य की ओर मुड़ जाता है और फिर उसकी लेखनी से एक से एक बढ़कर विचारोत्तेजक निबन्ध निःसृत हुए हैं। साहित्य के प्रश्न, राजनीति के प्रश्न, समाज और संस्कृति के प्रश्न इन सभी प्रश्नों से वे अपने निबन्धों में बड़े पुरअसर ढंग से जूझें हैं। जो निबंध महज तत्कालीन जरूरतों के प्रश्नों को लेकर लिखे गये थे, उन्हें तो मैंने छोड़ दिया है पर कई निबन्ध ऐसे भी हैं जो तत्कालीन और सामयिक प्रश्नों को लेकर लिखे गये थे पर आज भी वे उतने ही ज्वलन्त बने हुए हैं, उस प्रकार के निबन्ध भी इस संकलन में संगृहीत हैं।

भारती जी का सम्पादक के रूप में नाम सबसे पहली बार 21 अप्रैल, 1947 को पद्यकान्त मालवीय के ‘अभ्युदय’ अखबार में आया था। बाद में जब 15 अगस्त, 1947 से श्री इलाचन्द्र जोशी ने इलाहाबाद से ‘संगम’ नामक पत्रिका निकाली तो वे कुछ समय बाद ‘संगम’ में काम करने लगे थे। अप्रैल, 1953 से जनवरी, 1956 तक के ‘आलोचना’ पत्रिका के सम्पादक-मण्डल में रहे। 1955 में लक्ष्मीकान्त वर्मा के साथ मिलकर ‘निकष’ नामक साहित्यिक पत्रिका सम्पादित की। ‘निकष’ के केवल तीन अंक ही निकल सके किन्तु वे सभी अंक अपनी गुणवत्ता के चलते सर्वकालीन साहित्य कसौटी जैसे बन गये हैं।

 पुणे से प्रकाशित होनेवाली ‘राष्ट्रवाणी’ पत्रिका में 1957-1958 में ‘जलते प्रश्न’ स्तम्भ के अनतर्गत भारती जी ने जो निबन्ध लिखे, उन्होंने तत्कालीन साहित्य-जगत में बहुत उथल-पुथल मचायी थी। उस समय के सभी साहित्यकारों और पाठकों के लिए विचार-मन्थन का जरिया बने थे वे लेख। ‘प्रगतिवाद : एक समीक्षा’, ‘ठेले पर हिमालय’, ‘पश्यन्ती’, ‘कुछ चेहरे : कुछ चिन्तन’, ‘कहनी-अनकहनी’, ‘शब्दिता, ‘यात्रा-चक्र’, ‘मुक्तक्षेत्रे-युद्धक्षेत्रे’, ‘युद्ध : यात्रा आदि पुस्तकों में उनके गद्य की विभिन्न छटाएँ पाठक समय-समय पर देखते रहे हैं। अब शेष बचे कुछ अप्रकाशित लेखों में से कुछ लेखों का यह संग्रह पाठकों को सहेजते हुए मुझे अपार सन्तोष का अनुभव हो रहा है। ‘अभ्युदय’, ‘संगम’ के चालीस के दशक से लेकर अपने देहावसान के नब्बेवें दशक तक—पचास वर्षों की अनवरत साधना की बीच वे साहित्य और संस्कृति के सजग प्रहरी की तरह सामने आये। आश्चर्य होता है कि इस यात्रा के प्रारम्भिक बिन्दु पर भी वही तेजस्विता, वही पैनापन, वही सन्तुलित दृष्टि और भाषा की वही सुगठित शैली नजर आती है जो अवसान तक ज्यों की त्यों बनी रही। इस संकलन में चालीस के दशक में लिखे गए उनके कुछ लेख संकलित हैं। आप पायेंगे कि लगता ही नहीं कि वे बीस-इक्कीस बरस के किसी किशोर ने लिखे होंगे—अपने देश, संस्कृति और भाषा के प्रति अटूट निष्ठा और अदम्य प्रेम के साथ सम्पूर्ण मानवता के हित की बात तो यह लेखक जैसे होश सँभालते ही करने लगा था, फिर धीरे-धीरे गहन अध्ययन और मौलिक दृष्टि ने उन्हें हिन्दी साहित्य की गौरवशाली प्रतिभाओं की पाँत में हमेशा के लिए स्थापित कर दिया है।

मेरा वश चले तो उनके लिखे हर अक्षर तो, हर पंक्ति को आपके हाथों में सहेज दूँ। फिलहाल इतना ही...


पुष्पा भारती

1
अन्तःप्रेरणा और पलायन



 कलाकृति, चाहे वह शब्दों में हो या संगीतात्मक ध्वनियों में, चाहे रंगों और रेखाओं में हो या स्थापत्य में, किन्तु उससे कलाकार के अन्तरजगत का निकटतम सम्बन्ध रहता है। प्रत्येक कविता या चित्र या गीत का उद्गम कलाकार के मानस से होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। ये, जो कला को तो दैवी शक्तियों या सामाजिक शक्तियों द्वारा उद्भूत मानते रहे हैं, वे भी इतना तो मानते ही हैं कि शक्तियाँ भी मनुष्य के अन्तरजगत में संस्कार या अवतरण या अन्य किसी रूप में पहले प्रतिष्ठित होती हैं और तभी उसकी रचना-प्रक्रिया को प्रभावित कर पाती हैं। कलाकार के अन्तरजगत में घटित होनेवाली इस रचना-प्रक्रिया का मूल अन्तःप्रेरणा है। जब तक कलाकार में अन्तःप्रेरणा नहीं जागती तब तक वह सजीव कलाकृति नहीं प्रस्तुत कर पाता।

इस अन्तःप्रेरणा का मूल स्रोत और प्रकृति इतनी जटिल और गूढ़ है कि आदिकाल से अधिकांश विचारक इसके विश्लेषण से बचते ही आये हैं। आदिकाल और मध्यकाल  में समस्त कला-समीक्षा अन्ततोगत्वा इस अन्तःप्रेरणा को मानवोपरि दैवी स्तरों से सम्बद्ध करती है। सरस्वती या कोई भी अन्य बुद्धि या कला का देवता मनुष्य को हृदय में अपनी एक किरण प्रेरणा के रूप में उद्भासित कर देता है और उस समय सृजन करता कलाकार मात्र माध्यम रह जाता है। शैवों की यह कल्पना कि समस्त शब्द और ध्वनियाँ अन्ततोगत्वा शिव के डमरू से उत्पन्न हुई हैं, तान्त्रिकों की यह कल्पना की समस्त अक्षर बीजाक्षर हैं और दैवी शक्तियों से सम्पन्न हैं, वैष्णवों की यह कल्पना कि प्रभु की लीला का गायन करने वाला प्रत्येक कवि किसी-न-किसी अंश में उनकी वंशी का अवतार है, जिसमें फूँक या अन्तःप्रेरणा दैवी शक्ति से जाग्रत होती है—यहाँ तक कि जयदेव का अधूरा श्लोक स्वतः कृष्ण आकर पूरा कर देते हैं...ये सारी कल्पनाएँ इसी एक मूल तत्त्व पर आधारित हैं कि कलाकृति की प्रबलतम अन्तःप्रेरणा जो अधिकतर मनुष्य की सचेतन मानसिक शक्तियों का, वातावरण का अतिक्रमण कर जाती है, उसका ठीक-ठीक निदान मध्यकालीन चिन्तक मानवी मनोविज्ञान में नहीं खोज पाते हैं। वर्तमान युग में किसी न किसी रूप में यह विचारधारा वतर्मान है। अरविन्द ने अपने एक पत्र में कहा है, ‘कवि के उच्चतम या सर्वाधिक मुक्त क्षणों में वह अपने बाह्य सचेत मानस द्वारा नहीं लिखता, वरन् अन्तः प्रेरणा से देवताओं के प्रवक्ताओं के प्रवक्ता की भाँति लिखता है।’’

दैवी प्रेरणा की बात सर्वमान्य नहीं है, किन्तु इतना तो स्वतः कलाकारों की साक्षी से ज्ञात है कि उनकी अन्तःप्रेरणा मन के सचेत स्तरों की अपेक्षा उनके अवचेतन या अर्धचेतन स्तरों पर जाग्रत होती है। अक्सर वे अपने व्यावहारिक दैनिक जीवन के किसी अत्यन्त शुष्क नीरस व्यापार में संलग्न रहते हैं, पर उनके मन के गहन स्तरों में कुछ और घटित होता रहता है जब उसका विस्फोट होता है तब उसका सचेत मानस विवश हो जाता है, उनके हाथ में जैसे भाव-प्रक्रिया के सूत्र छूट जाते हैं और जैसे स्वतःप्रेरित कलाकृति उनकी समस्त कल्पना-बुद्धि को सहायक उपादान बनाकर अपने को अभिव्क्त कर डालती है और उस समय कलाकार का बाह्य व्यक्तित्व इतना विवश हो जाता है कि जैसी डी.एच. लारेंस ने अपनी कृतियों के बारे में कहा, ‘‘घटाओं की तरह कृति भी घटित हो जाती है और मैं देखता रह जाता हूँ।’’

वर्तमान में जो विशिष्ट विचारधाराएँ विकसित हुईं, जिन्होंने कला की प्रकृति को व्यापक पृष्ठभूमि में समझने का प्रयास किया और जिनसे आधुनिक कला-समीक्षा सबसे अधिक प्रभावित हुई, उनमें मार्क्सवाद और फ्रायड का मनोविश्लेषण सिद्धान्त सर्वप्रमुख है। मार्क्स ने कलाकार की समाज-सापेक्ष स्थिति पर और कलाकृति की सामाजिक उपयोगिता पर अधिक ध्यान दिया और अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर इस ओर विशेष संकेत किया कि कला-सृजन सामाजिक शक्तियों से प्रभावित होता है। अन्ततोगत्वा यह सृजन व्यक्ति के द्वारा होता है; उसके जटिल, गहन, अनेक स्तरों वाले अन्तरजगत् से उद्भूत होता है। यदि वह व्यक्ति और उसका यह जटिल अन्तरजगत् न हो तो सृष्टि के आदि से लेकर आज तक की समस्त सामाजिक शक्तियाँ और राजसत्ताएँ महान कविता की एक भी पंक्ति या एक भी सप्राण या सजीव चित्र नहीं रच सकती थीं। समस्त मार्कसीय कला-समीक्षा का विकास इसी कारण एकांकी होता गया और कलाकार की अन्तःप्रेरणा और उसका जटिल प्रकृति ने समझ पाने के कारण उसके निर्णय अधिकतर मिथ्या या सतही सिद्ध होते रहे। काडबेल एकमात्र ऐसा समीक्षक था जिसने काव्य-सृजन की प्रकृति को गहराई से समझने का प्रयास किया और उस दिशा में जब केवल सामाजिक शक्तियाँ अन्तःप्रेरणा की व्याख्या नहीं कर पायीं, तब उसे नैसर्गिक प्रवृत्तियों के सिद्धान्त का आश्रय लेना पड़ा। आज मार्क्सीय शिविर में ही काडबेल के सिद्धांतों को इसी कारण मार्क्स-विरोधी कहा जाने लगा है और मारिस कार्नफोथ के नेतृत्व में नये ब्रिटिश मार्क्सवादी विचारकों ने काडबेल की तीव्रतम आलोचना की है।



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